महाराणा प्रताप जयंती 2025: जाने तिथि, कैसे मनाई जाती है, जन्म और इतिहास

महाराणा प्रताप के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में हर साल महारणा प्रताप जयंती मनाई जाती है। वह सोलहवीं शताब्दी के उदयपुर, मेवाड़  मेम सिसोदिया राजपूत राजवंश के महान राजा थे। वह अपनी वीरता, पराक्रम, व शौर्यता के लिए इतिहास में अमर है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर को रणभूमि में कई बार टक्कर का मुकाबला दिया। खासकर महारणा प्रताप को हल्दी घाटी के युद्ध के लिये जाना जाता है। उन्हें धरती का वीर पुत्र महारणा प्रताप के नाम से भी जाना जाता है ।

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साल 2025 में महाराणा प्रताप जयंती कब है?

महारणा प्रताप का जन्म 9 May 1540
महाराणा प्रताप की 485वां जन्म वर्षगांठ29 मई 2025, गुरुवार
तृतीया तिथि प्रारम्भ29 मई 2025 को 01:54 बजे
तृतीया तिथि समाप्त29 मई 2025 को 23:18 बजे

महाराणा प्रताप जयंती कैसे मनाई जाती है?

महाराणा प्रताप राजस्थान मेवाड के राजपूत राजा थे। राजपूत समाज का एक बड़ा हिस्सा खासकर के राजस्थान में महाराणा प्रताप की जयंती को बड़ी ही धूम-धाम के साथ मनाते है। पूरा राजपूत समाज इस दिन झाकियां सजाता है, शहरों और गलियों में रेलिया निकालता है। इसके साथ ही महाराणा प्रताप के नाम के नारे लगाते हैं । कई जगहों पर महाराणा प्रताप की मूर्तिया और मंदिर भी बने हुए हैं। वहां जाकर उनकी मूर्ति की पूजा-अर्चना की जाती है। शाही परिवार के लोग अपने घर में उनके नाम की जौत जलाते है ।

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महाराणा प्रताप से जुड़ी कुछ बाते जन्म और इतिहास

कुंभलगढ़ दुर्ग राजस्थान में 9 मई, 1540 ईस्वी को महारणा प्रताप का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम महारणा उदयसिंह  तथा माता का नाम जीवत कंवर था। उनके कुलदेवता का नाम एकलिंग महादेव है। मेवाड़ के सभी राणाओं के जीवन में एकलिंग महादेव का बहुत महत्व है। एकलिंग महादेव राणाओं के अराध्यदेव है। जिनका मंदिर उदयपुर में स्थित है। महाराणा प्रताप के घोड़े का नाम चेतक था, जो दुनिया के सभी घोड़ों में श्रेष्ठ था। इतिहास में महारणा प्रताप के नाम के साथ उनके घोड़े चेतक का नाम भी अमर है। महाराणा प्रताप का पूरा बचपन भील समुदाय के साथ में ही बीता, भीलों के साथ रहकर ही महारणा प्रताप ने युद्ध कला की बरीकियां सीखी थी। भील अपने पुत्र को किका कहकर पुकारते है, इसलिए सभी भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे और उनके बचपन का नाम कीका ही पड गया ।

महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की राजधानी उदयपुर पर 1568 से लेकर 1597 ईस्वी तक राज किया। उदयपुर पर  आसानी से आक्रमण हो सकता था । इसलिए यह सोचकर सामन्तों की सलाह से महाराणा प्रताप ने उदयपुर को छोड़ दिया व कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के पहाड़ी इलाके में जाकर रहने लगे। महाराणा प्रताप ने जब मेवाड़ की सत्ता संभाली थी, उस समय राजपूत समाज बहुत मुश्किल दौर से गुजर रहा था। बादशाह अकबर के सामने कई राजपूत राजाओं ने अपने सिर झुका लिए थे। कई राज्यवंशों के उत्तराधिकारियों ने अपनी कुल मर्यादा का सम्मान भुलाकर मुगलों से अपना वैवाहिक संबंध बना लिए थे। लेकिन, स्वाभिमानी होने के कारण महाराणा प्रताप अपने पूर्वजों की मर्यादा की रक्षा के लिए अड़िग थे। यही कारण है की वह बादशाह अकबर की आंखों में सदैव खटकते रहते थे। गुरिल्ला युद्ध नीति द्वारा महारणा प्रताप ने अकबर को कई बार परास्त किया था।

महाराणा प्रताप के समय मुगल सम्राट अकबर का दिल्ली पर राज था, जो भारत के सभी हिस्सों पर कब्जा करके राजा-महाराजाओं को मुगल सम्राज्य के अधीन करके इस्लाम धर्म का झण्डा हिन्दुस्तान में फहराना चाहता था। महारणा प्रताप ने तीस साल तक अकबर को अधीनता स्वीकार न करने के लिये कड़ी टक्कर दी थी। महाराणा प्रताप ने अपने कुलदेवता की कसम खाकर प्रतिज्ञा ली थी, कि वह अकबर को कभी बादशाह नहीं मानेगे, उसके सामने नहीं झुकेंगे। अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिये कई बार अपने दूत भी भेजे थे, लेकिन महारणा प्रताप को अकबर का प्रस्ताव मंजूर नहीं था ।

हल्दी घाटी युद्ध

हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून, सन 1576 को महाराणा प्रताप को समर्थन कर रहे घुड़सवारों और मुगल सम्राट अकबर की सेना के बीच हुआ था। हल्दी घाटी युद्ध का नेतृत्व आमेर के महाराजा मान सिंह प्रथम ने किया था। महाराणा प्रताप को इस युद्ध में भील जनजाति का सहयोग मिला था। सन 1568 में चित्तौड़गढ़ को घेर कर मेवाड़ की सारी उपजाऊ पूर्वी भूमि पर  मुगलों ने अपना कब्जा कर लिया था। लेकिन, जंगल और पहाड़ी राज्य महाराणा के कब्जे में ही थे। मेवाड़ के जरिये अकबर गुजरात तक पहुचने का अपने लिए एक रास्ता बनाना चाहता था। सन 1572 में प्रताप सिंह को राजा (राणा) का ताज पहनाया, तब अकबर ने अपने दूतों को भेजकर महाराणा प्रताप को उस क्षेत्र के कई अन्य राजपूत नेताओं की तरह एक जागीरदार बना दिया। लेकिन, महाराणा प्रताप ने अकबर को व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुत करने से मना कर दिया, तभी युद्ध का प्रारंभ हुआ। युद्ध का क्षेत्र उस समय राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी स्थल था। महाराणा प्रताप ने उस युद्ध में अपनी ओर से 3,000 घुड़सवारों और 400 भीलों को उस मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान अपने हाथों में ली थी। तीन घंटे से ज्यादा देर तक भयंकर युद्ध चला, जिसके बाद महाराणा प्रताप खुद जख्मी हो गये। कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए ठीक रहे। मेवाड़ के 1,600 पुरुषों की संख्या थी। मुगल सेना से 150 सैनिकों की मृत्यु हो गई थी तथा 350 सैनिक घायल हुए। इस वजह से इस युद्ध का कोई भी अंतिम परिणाम नहीं निकला। जबकि, वे (मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के इलाकों पर कब्जा करने में समर्थ। लंबे समय तक वह उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ हो गये थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और केंद्रित  हुआ, महाराणा प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया।

हल्दी घाटी के युद्ध के बाद का महारणा प्रताप ने अपना समय पहाड़ों और जंगलों में ही गुजारा था। महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर जंगलों में रहने लगे थे । अपने परिवार के साथ वह जंगलों में ही अपना समय व्यतीत करते थे। अरावली की गुफाओं में उनका आवास था और वही शिला पर शयन करते थे। कुछ समय बिताने के बाद महाराणा प्रताप की मृत्यु 29 जनवरी 1597 को चावंड में हो गई। 30 वर्षों के संघर्ष और युद्ध के बाद भी अकबर महाराणा प्राताप को ना ही बंदी बना सका और न ही झुका सका। महारणा प्रताप ने अपने देश जाति, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया और अंत संघर्ष करते रहे। साथ ही जीवन भर अपने उसूलों पर चलते रहे ।  

महाराणा प्रताप जयंती पर, हम उनका नाम याद करते हैं और हल्दीघाटी के युद्ध को याद करते हैं। लोग महाराणा प्रताप की कहानी भी अपने बच्चों को सुनाते हैं ताकि उन्हें प्रेरणा मिले।

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