शिवलिंग पर नहीं चढ़ानी चाहिए तुलसी : जाने शिव और तुलसी का संबंध
दोस्तों आस्था से परिपूर्ण, धार्मिक और एकदम शुद्ध पौधे में आपका स्वागत है। कहीं हम कुछ भूल तो नहीं रहे? जी हां, ‘ब्लॉग’ की बजाए हमने यहां ‘पौधे’ शब्द का इस्तेमाल किया है। यह ठीक भी है, क्योंकि तुलसी भी हमारे लिए इसी तरह का महत्व रखती है। तो चलिए अब हम आपको तुलसी के पौधे के बारे में, शिव तुलसी के संबंध के बारे में और इससे संबंधित अन्य चीजों के बारे में भी बताते हैं।
तुलसी का महत्व और इसके नाम
तुलसी एक बड़ा ही पवित्र पौधा है। इसे पवित्र तुलसी के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में मूल रूप से इसकी उत्पत्ति हुई है। दक्षिण पूर्व एशियाई उष्णकटिबंधीय देशों में इसे उगाया जाता है। इस पौधे को उगाने के पीछे कई वजहें मौजूद हैं।
तुलसी का पौधा इस्तेमाल किया जाता है
1. औषधि के तौर पर
2. इससे जरूरी द्रव निकालने के लिए
3. धार्मिक एवं पारंपरिक उद्देश्य के लिए
4. हर्बल चाय के रूप में
तुलसी के पौधे को वैज्ञानिक रूप से ओसीमम तेनुइफ्लोरम के नाम से जाना जाता है। यह एक बारहमासी पौधा है। हिंदुओं के लिए यह पूजनीय है। अनुष्ठानों और अलग-अलग परंपराओं के दौरान तुलसी के पौधे की पूजा की जाती है। हिंदू धर्म में तुलसी के पौधे को सभी पौधों में सबसे पवित्र माना गया है। तुलसी के पौधे को स्वर्ग एवं पृथ्वी के बीच की कड़ी माना गया है।
वेदों के अनुसार तुलसी के पौधे के कई नाम हैं। इन सभी के अपने-अपने अर्थ भी हैं।
- वैष्णवी का अर्थ हुआ कि यह विष्णु से संबंधित है।
- विष्णु वल्लभ का तात्पर्य हुआ कि भगवान विष्णु की यह प्रिय है।
- हरिप्रिया का मतलब हुआ कि यह भगवान विष्णु की पसंदीदा भी है।
- श्री तुलसी – यह एक हरी पत्तियों वाली तुलसी है, जिसका अर्थ होता है भाग्यशाली तुलसी।
- रमा तुलसी – यह एक चमकीले रंग वाली तुलसी है।
- श्यामा तुलसी / कृष्ण तुलसी – गहरे हरे रंग की इसकी पत्तियां होती हैं। इसकी जड़ें बैंगनी रंग की होती हैं। कुल मिलाकर इसका रंग गहरा होता है। यह भगवान कृष्ण के गहरे रंग का प्रतिनिधित्व करती है।
- तुलसी को माता लक्ष्मी का अवतार भी माना गया है। इसलिए लक्ष्मी प्रिया के नाम से भी इसे जाना जाता है।
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तुलसी की पौराणिक उत्पत्ति
वृंदा और जालंधर
स्कंद पुराण में एक कथा का जिक्र मिलता है। इसके मुताबिक जालंधर नाम के एक असुर ने कठोर तपस्या करके भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया था और उनसे वरदान प्राप्त कर लिया था। भगवान ब्रह्मा के वरदान के मुताबिक जालंधर को कोई जीत नहीं सकता था। हालांकि, उन्होंने यह शर्त रख दी थी कि जब तक उसकी पत्नी की पवित्रता किसी और द्वारा खंडित नहीं हो जाती है, तब तक जालंधर को हराना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं होगा। यह वरदान प्राप्त करने के बाद जालंधर अहंकार में डूब गया। उसने देवताओं के साथ युद्ध का ऐलान कर दिया।
जालंधर एक बड़ा ही ताकतवर योद्धा था। वह इसलिए कि उसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि भगवान शंकर के तीसरे नेत्र से निकली हुई ज्वाला से उसकी उत्पत्ति हुई थी। जालंधर का यह मानना था कि यदि वह भगवान शिव की पत्नी पार्वती की पवित्रता को भंग कर देता है, तो वह भगवान शिव को हरा देगा।
जालंधर ने माया से भगवान शिव का रूप धारण कर लिया और वह माता पार्वती के पास पहुंच गया। मां पार्वती उसे देखते ही पहचान गई। इसे देखने के बाद माता पार्वती को एक तो लज्जा आई, ऊपर से उन्हें बड़ा क्रोध भी आ गया। इसकी वजह से उनका रंग काला हो गया था। उनकी आंखें भी एकदम लाल हो गई थीं। माता पार्वती उस वक्त देवी काली के रूप में परिवर्तित हो गई थीं।
जालंधर ने जब यह देखा तो उसे यह अहसास हो गया कि देवी के प्रकोप के सामने अब उसका खड़ा होना मुश्किल है। वह वहां से भाग खड़ा हुआ। माता पार्वती इसके बाद भगवान विष्णु के पास पहुंच गईं। उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि वे जालंधर का रूप धारण करें और उसकी पत्नी वृंदा के पास जाकर उसकी पवित्रता को भंग कर दें। उन्होंने कहा कि जालंधर को हराने का अब यही एकमात्र विकल्प बचा है। साथ ही उन्होंने भगवान विष्णु से यह भी वादा किया कि इसे पाप नहीं माना जाएगा।
भगवान विष्णु ने जालंधर का रूप धारण कर लिया और उसकी पत्नी वृंदा के पास पहुंच गए। उन्होंने उसकी पवित्रता भंग कर दी। वृंदा को जब इसका एहसास हुआ तो वह बहुत दुखी हो गई। साथ ही वह क्रोध में आ गई। उसने भगवान विष्णु को यह श्राप दे दिया कि वे शालिग्राम नाम के एक काले पत्थर में तब्दील हो जाएंगे। यह शालिग्राम पत्थर आज भी गंडकी नदी के तट पर स्थित है।
वृंदा ने भगवान विष्णु को यह भी श्राप दिया कि एक दिन धोखे से उनकी पत्नी का अपहरण कर लिया जाएगा और उन्हें पत्नी वियोग सहना पड़ेगा। वृंदा ने जो भगवान विष्णु को यह श्राप दिया था, वह तब सही साबित हुआ, जब भगवान विष्णु ने श्री राम का अवतार लिया और उनकी पत्नी सीता का राक्षसों के राजा रावण ने अपहरण कर लिया। इसके बाद भगवान शिव और जालंधर के बीच युद्ध हुआ, जिसमें भगवान शिव जालंधर का वध करने में सफल रहे।
भगवान विष्णु को श्राप देने के बाद वृंदा अपने पति की चिता पर कूद गई और वह भी सती हो गई। भगवान विष्णु ने एक प्रकार से अपनी पत्नी को धोखा दिया था। इस वजह से उन्होंने पश्चाताप करने के बाद इस श्राप को स्वीकार भी कर लिया। भगवान विष्णु ने यह वादा किया कि वृंदा की राख से जिस पौधे की उत्पत्ति होगी, उसे तुलसी के नाम से जाना जाएगा। उसका विवाह काले पत्थर शालिग्राम से होगा। इससे जिंदगी भर के लिए उसकी पवित्रता सुनिश्चित रहेगी। भगवान विष्णु ने यह भी कहा कि तुलसी के बिना वे कभी भी भोग नहीं लगाएंगे। यही वजह है कि भगवान विष्णु के प्रसाद में हमेशा एक पवित्र तुलसी जरूर शामिल होती है।
तुलसी और शंखचूड़
देवी भागवत में एक अन्य कथा का जिक्र मिलता है। इसके मुताबिक शंखचूड़ नाम का एक बड़ा ही प्रतापी दैत्य हुआ करता था। उसने भगवान ब्रह्मा की कठोर तपस्या की थी। इससे ब्रह्मा उस पर मोहित हो गए थे। शंखचूड़ को उन्होंने भगवान विष्णु का कवच प्रदान कर दिया था और अनंत जीवन का वरदान भी दे दिया था। ब्रह्मा ने शंखचूड़ से यह कह दिया था कि जब तक उसके शरीर पर विष्णु कवच मौजूद होगा, तब तक कोई भी उसका वध नहीं कर सकता।
शंखचूड़ में आस्था भी थी और वह धार्मिक प्रवृत्ति का भी था, मगर अपने कुछ दोस्तों की वजह से उसने कई बार बड़ी गलतियां की। वह त्रिलोक का स्वामी बनना चाहता था। तीनों लोकों पर उसने विजय आखिर पा ही ली और देवताओं को उनके निवास से बाहर कर दिया। भगवान शिव ने उसके खिलाफ युद्ध भी शुरू कर दिया, मगर वे उसे हरा नहीं पा रहे थे।
इसके बाद भगवान विष्णु ने एक असहाय ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया। वे जानते थे कि इस युद्ध से देवताओं को तब तक कोई लाभ नहीं मिलेगा, जब तक शंखचूड़ के पास विष्णु कवच मौजूद है। इसलिए ब्राह्मण के रूप में वे शंखचूड़ के पास गए और उससे उसका विष्णु कवच दान में मांग लिया। शंखचूड़ उदार प्रवृत्ति का था। उसका स्वभाव भी दयालु था। इस वजह से वह ना नहीं कह सका। उसने अपना कवच ब्राह्मण के रूप में आए भगवान विष्णु को दान कर दिया। इस वजह से उसकी अजेयता वाली शक्ति खत्म हो गई और युद्ध में उसकी हार हो गई।
भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप धारण किया। उन्होंने अपनी मायावी ताकत का प्रयोग करके ऐसा किया था। वे शंखचूड़ की पत्नी तुलसी के पास पहुंच गए। वहां जाकर उन्होंने अपनी विजय की घोषणा कर दी। तुलसी ने अपने पति शंखचूड़ के रूप में आये भगवान विष्णु की पूजा की और उनका रमण भी किया। इसके बाद तुलसी ने शंखचूड़ से कहा कि वह जानना चाहती है कि वे कौन हैं। तब भगवान विष्णु अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। तुलसी को माता लक्ष्मी का अवतार भी माना गया है। उन्हें अपने सांसारिक रूप का त्याग करके आकाश में स्थित अपने घर में लौटना था।
तुलसी इसके बाद बड़ी ही क्रोधित हो गई कि भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप धारण करके उसकी पवित्रता को भंग किया है और शंखचूड़ के प्रति जो उसका पतिव्रता धर्म था, उसे भी आघात पहुंचाया है। इसके बाद उसने भगवान विष्णु को यह श्राप दे दिया कि वे काले पत्थर शालिग्राम में परिवर्तित हो जाएं। तुलसी ने कहा कि वह यह मानती है कि भगवान विष्णु एक पत्थर की तरह कठोर हैं और उनमें भाव बिल्कुल भी नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि तुलसी के नश्वर अवशेष सड़ गए थे और गंडकी नदी में बदल गए थे, जो नेपाल में है। वहीं, उसके बाल पवित्र तुलसी के रूप में रह गए।
तुलसी - राधा
तुलसी परिवार में तुलसी और राधा को तीसरा और चौथा फूल माना गया है। हिंदू पौराणिक कथाओं के मुताबिक तुलसी को भगवान कृष्ण की प्रिय राधा का अवतार माना जाता है। वृंदा को राधा का संक्षिप्त रूप माना गया है। कृष्ण जब अपने बाल्यकाल में थे, तो मथुरा में वे राधा के साथ एक जंगल में खेलते थे। इसे वृंदावन या तुलसी का बगीचा कहा जाता है। एक और कथा के मुताबिक एक राजकुमारी को भगवान कृष्ण से प्रेम हो गया था। ऐसे में ईर्ष्या की वजह से राधा ने उसे श्राप दे दिया था कि वह एक पवित्र तुलसी के पौधे में बदल जाएगी।
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हिंदू धर्म और तुलसी
तुलसी का आरंभ
ऐसा माना गया है कि गंगा नदी के साथ हिंदुओं के सभी तीर्थ तुलसी की जड़ों में ही निवास करते हैं। एक हिंदू प्रार्थना के अनुसार यह भी माना जाता है कि तुलसी के तने के साथ इसके पत्तों में भी देवताओं का निवास है। इसके ऊपरी भाग में वेद निवास करते हैं। इसे पवित्र तुलसी के नाम से जाना जाता है। महिलाओं के बीच भक्ति का पवित्र तुलसी एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। महिलाओं की देवी के रूप में भी तुलसी को जाना गया है। साथ ही यह मातृत्व और पत्नी का भी प्रतीक मानी गई है।
तुलसी को हिंदू धर्म के केंद्रीय प्रतीक के रूप में जाना गया है। वैष्णव धर्म के अनुयायियों ने तुलसी को पौधों के साम्राज्य के बीच भगवान की अभिव्यक्ति के रूप में माना है। ऐसी परंपरा चली आ रही है कि एक हिंदू के घर में पवित्र तुलसी का पौधा जरूर उगाया जाना चाहिए। हिंदू धर्म में ब्राह्मण और वैष्णव जैसी जातियों के बीच ऐसी परंपरा चलती आ रही है। साथ ही तुलसी के पौधे वाले घर को आमतौर पर तीर्थ स्थान के रूप में माना जाता है।
जहां तुलसी उगाई जाती है, उसे वृंदावन के नाम से जाना जाता है। इसका मतलब होता है तुलसी का बगीचा। घर के सामने वृंदावन के रूप में तुलसी के पौधे को एक तुलसी चौरा के रूप में स्थापित किया जाता है। यह पत्थरों और ईंटों से तैयार की हुई संरचना होती है।
मोक्ष और तुलसी
यदि आप तुलसी की पूजा नहीं भी करते हैं, तो भी कोई बात नहीं। हिंदू यह मानते हैं कि यदि आप नियमित रूप से इसे पानी देते हैं और इसकी देखभाल करते हैं, तो इससे भी आप मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। आमतौर पर घर में महिलाएं पवित्र तुलसी की नियमित रूप से पूजा करती हैं और इसकी देखभाल भी करती हैं। ऐसा माना जाता है कि नियमित रूप से तो पवित्र तुलसी की पूजा की ही जाती है, मगर मंगलवार और शुक्रवार का तुलसी पूजन के हिसाब से विशेष महत्व है, क्योंकि ये इसके लिए सबसे अनुकूल माने गए हैं।
पौधे को पानी देना, इसके आसपास के क्षेत्र में भी पानी की उपलब्धता बनाए रखना, गाय के गोबर से आसपास की जगह को साफ करना, इस पर फूल चढ़ाना, प्रसाद चढ़ाना, इसे धूप दिखाना और गंगाजल आदि डालना, ये सभी कुछ सामान्य परंपराएं हैं, जो चलती आ रही हैं। मंत्रों का जाप करते हुए भक्त इसके सामने खड़े होकर प्रार्थना करते हैं। साथ ही वे इसकी परिक्रमा भी करते हैं।
तुलसी के पौधे के निचले हिस्से के निकट बहुत से घरों में लोग रंगोली बना लेते हैं या फिर देवताओं और संतों जैसी डिजाइन भी तैयार कर लेते हैं। आमतौर पर दिन में दो बार तुलसी के पौधे की पूजा होती है। एक बार सुबह में इसकी पूजा होती है और दूसरी शाम में।
तुलसी के लाभ
तुलसी के औषधीय गुणों की सूची बहुत ही लंबी है, जो इस प्रकार है:-
- तुलसी में एक्सीडेंट प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। हमारे शरीर की कोशिकाओं का ये एंटीऑक्सीडेंट मुक्त कणों के हानिकारक प्रभावों से बचाव करते हैं। अलग-अलग प्रकार के विकिरणों और पर्यावरणीय दबाव की प्रतिक्रिया में जो हमारे शरीर में अणुओं का निर्माण हो जाता है, वही मुक्त कण कहे जाते हैं। इसकी वजह से मधुमेह और उच्च रक्तचाप का प्रभाव कम हो जाता है।
- तुलसी में लिनोलिक एसिड की मौजूदगी होती है, जो कि त्वचा के लिए बहुत ही अच्छा माना जाता है। इतना ही नहीं तुलसी में ट्राइटरपेनॉइड अर्सोलिक एसिड भी मौजूद होता है, जो कि अलग-अलग प्रकार की त्वचा संबंधी बीमारियों जैसे कि खुजली, दाद और त्वचा के कैंसर को रोकने एवं इनके इलाज में भी प्रयोग में आता है। एंटी रिंकल्स के रूप में भी इसे प्रयोग में लाया जाता है और एंटी एजिंग गुणों की वजह से इससे त्वचा में कसाव भी आता है।
- बुखार में राहत देने के लिए यह सबसे लोकप्रिय घरेलू उपचार है। इसमें एंटीबैक्टीरियल, एंटीवायरल और एंटीकार्सिनोजेनिक गुण भी मौजूद होते हैं। हेपेटाइटिस, मलेरिया, तपेदिक, डेंगू बुखार और स्वाइन फ्लू के इलाज में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।
- शरीर के पाचन तंत्र को यह मजबूत बनाती है। साथ ही तुलसी शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी काफी हद तक सुधार देती है।
- तुलसी एक तरह का एडाप्टोजेन भी है, जो कि हमारे शरीर में तनाव पैदा करने वाले हार्मोन कोर्टिसोल को नियंत्रित करने का काम करता है। इससे हमारा तनाव घट जाता है या फिर हमारा शरीर इसके मुताबिक सामंजस्य बैठा लेता है।
- कीड़ों के प्रभाव को कम करने के रूप में भी इसे प्रयोग में लाया जाता है।
- तुलसी के बारे में यह माना जाता है कि यह शरीर में यूरिक एसिड के स्तर को नियंत्रित करता है और इस तरह से गुर्दे के संक्रमण के खतरे को कम कर देता है।
- ऐसा कहा जाता है कि तुलसी के पत्ते यदि थोड़ी मात्रा में चबाए जाएं, तो इससे मसूड़े स्वस्थ रहते हैं और मुंह के छालों से भी बचाव होता है।
- तुलसी की चाय या फिर तुलसी का काढ़ा पीने से अस्थमा के लक्षण कम होते हैं। साथ ही ब्रोंकाइटिस जैसी सांस की अन्य बीमारियों में भी राहत मिलती है।
- तुलसी में बीमारियों से लड़ने वाले पोषक तत्व मौजूद होते हैं। इनमें एंटीइन्फ्लेमेटरी, एंटीऑक्सीडेंट और एंटीकार्सिनोजेनिक गुण शामिल होते हैं। फाइटोन्यूट्रिएंट्स प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाते हैं। कोशिकाओं की अंदरूनी संरचना को ये सुधारते हैं। साथ ही डीएनए को पहुंचे नुकसान को भी ठीक करते हैं।
- तुलसी से आवश्यक तेल भी मिलते हैं और साथ में इसमें विटामिन ए और सी प्रचुर मात्रा में मौजूद होते हैं।
- ऐसा माना जाता है कि अर्जुन जैसी जड़ी-बूटियों के साथ मिलाकर जब तुलसी को इस्तेमाल में लाया जाता है, तो इससे दिल से संबंधित बीमारियों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।
- तुलसी का पवित्र पौधा हमारे आध्यात्मिक और भावनात्मक जीवन को जोड़ने का काम करता है। इससे खुद के बारे में हमें गहरी समझ हासिल हो पाती है। प्राचीन हिंदू ग्रंथों के मुताबिक तुलसी को पारंपरिक रूप से कार्तिक महीने में लगाया जाता है। स्कन्द पुराण के मुताबिक तुलसी के जितने अधिक पौधे लगाए जाएं, उतनी ही अधिक मात्रा में यह पापों का नाश करती है। पद्म पुराण के अनुसार तुलसी के पौधे वाले घर किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं होते।
ऐसा माना जाता है कि जिन घरों में तुलसी मौजूद होती है, वहां पर बैक्टीरिया नहीं रहते। यह भी कहा जाता है कि मृत्यु के देवता यमराज उस घर में दाखिल होने से बचते हैं, जहां तुलसी का पौधा मौजूद होता है। प्राचीन हिंदू ग्रंथों के अनुसार तुलसी के संपर्क में रहने वाले लोगों को शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के लाभ मिल पाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एक तुलसी के पौधे को रोप देने से ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मौजूदगी के लिए आह्वान हो जाता है। इसके अलावा जिन जगहों पर तुलसी लगाई जाती है, वहां पुष्कर जैसे पवित्र स्थानों एवं गंगा जैसी पवित्र नदियों का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है।
हम शिवलिंग पर तुलसी क्यों नहीं चढ़ाते?
पवित्र तुलसी, सभी देवी-देवताओं की पूजा में एवं उनका प्रसाद तैयार करने में इसका स्थान बहुत ही पवित्र होता है। भगवान गणेश, शिवलिंग और देवी दुर्गा को छोड़ कर बाकी सभी देवी देवी-देवताओं की तुलसी के पत्ते से पूजा की जाती है। प्रसाद के रूप में उन्हें यह पवित्र जड़ी-बूटी चढ़ाई जाती है। शिव पुराण के मुताबिक तुलसी के पत्ते का चढ़ावा भगवान शिव को पसंद नहीं है। यही वजह है कि हम भगवान शिव को तुलसी नहीं चढ़ाते हैं। इसलिए शिवलिंग पर धतूरा का फूल, बेलपत्र, भांग, भस्म, चंदन का लेप और ठंडा दूध आदि चढ़ाए जाते हैं।
हिंदुओं एवं भगवान विष्णु के भक्तों के बीच तुलसी महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इससे कई शुभ लाभ प्राप्त होते हैं। साथ ही तनाव एवं नकारात्मकता को कम करने के लिए भी तुलसी जानी जाती है। हिंदू रीति-रिवाजों में हमारे पूर्वजों को भी प्रसन्न करने के लिए तुलसी प्रयोग में लाई जाती रही है। तुलसी का प्रयोग पूर्वजों के श्राद्ध में उन्हें प्रसन्न करने के लिए किया जाता है।
और अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि तुलसी हिंदुओं के लिए केवल एक पौधा नहीं, बल्कि इससे कहीं बढ़कर है। तो हम यह उम्मीद करते हैं कि अब आपको तुलसी का मतलब, शिव और तुलसी का संबंध और इसकी कहानियां के बारे में अच्छी तरह से जानकारी हो गई होगी। तो चलिए अब विदा लेने का वक्त आ गया है।