जैन धर्म के 24 तीर्थंकर हैं। तीर्थंकरका अर्थ होता है, तारने वाला। इन्हें अरिहंत भी कहा जा सकता है। अरिहंत शब्द अर्हत पद से संबंधित है। अरिहंत का अर्थ होता है जिसने अपने भीतर के शत्रुओं का नाश कर, उन पर विजय पा ली हो। अरिहंत का अर्थ भगवान भी होता है।
जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, जो ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांश, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अरह, मल्लि, मुनिव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ और महावीर है। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी को माना जाता है। आइए इनके बारे में विस्तृत रूप से चर्चा करते हैं…
ऋषभदेव जी
ऋषभदेव को जैन धर्म का सबसे पहला तीर्थंकार माना गया है। इनका जन्म चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी-नवमी को अयोध्या में हुआ था। इनके पिता कुलकरों की कुल परंपरा के सातवें कुलकर नाभिराज थे, और माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभदेव के भी दो पुत्र थे, भरत और बाहुबली थे, और दो बेटियां भी थी नाम सुंदरी और ब्राम्ही था। ऐसा भी माना जाता है कि ऋषभदेव स्वयंभुव मनु की पांचवीं पीढ़ी में जन्में थे। इन्होंने चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को ही दीक्षा ग्रहण की थी, और फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को इन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। भगवान ऋषभदेव का प्रतीक चिह्न- बैल, चैत्यवृक्ष- न्यग्रोध, यक्ष- गोवदनल, यक्षिणी- चक्रेश्वरी को माना गया है।
अजीतनाथजी
जैन धर्म के द्वितीय तीर्थंकर श्री अजीतनाथ जी का जन्म अयोध्या में माघ शुक्ल पक्ष की दशमी को माता विजया और पिता जीतशत्रु के घर हुआ था। उन्होंने माघ शुक्ल पक्ष की नवमी को दीक्षा ग्रहण की थी। इसके बाद पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी को उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी को श्री अजीतनाथ जी भगवान को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान अजीनाथ जी का प्रतीक चिह्न- गज, चैत्यवृक्ष- सप्तपर्ण, यक्ष- महायक्ष, यक्षिणी- रोहिणी को माना गया है।
संभवनाथजी
श्री संभवनाथ जी जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर हुए थे। इनकी माता का नाम सुसेना और पिता का नाम जितारी था। श्री संभवनाथजी का जन्म कार्तिक माह की पूर्णिमा के दिन श्रावस्ती नगरी में हुआ था। कठोर तपस्या के बाद कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की पंचमी को श्री संभवनाथ जी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। भगवान श्री संभवनाथ जी को चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री संभवनाथ जी का प्रतीक- अश्व, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- त्रिमुख, यक्षिणी- प्रज्ञप्ति को माना गया है।
अभिनंदनजी
माता सिद्धार्था देवी और पिता सन्वर के घर जन्मे भगवान श्री अभिनंदन जी जैन धर्म के चौथे तीर्थंकर के रूप में पहचाने गए। इनका जन्म माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन अयोध्या में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि इसी तिथि को उन्होंने दीक्षा भी ग्रहण की थी। इसके बाद उन्होंने कठोर तपस्या की और पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। भगवान श्री अभिनंदन जी को निर्वाण वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी और सप्तमी को सम्मेद शिखर पर हुआ था। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार श्री अभिनंदन जी का प्रतीक चिह्न- बंदर, चैत्यवृक्ष- सरल, यक्ष- यक्षेश्वर, यक्षिणी- व्रजश्रृंखला को माना गया है।
सुमतिनाथजी
पिता मेघरथ और माता सुमंगला देवी के घर वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को साकेतपुरी (अयोध्या) में जन्मे सुमतिनाथजी जैन धर्म के पांचवें तीर्थंकार बनें। हालांकि, कुछ विद्वान इनके जन्म की तारीख चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भी बताते हैं। भगवान श्री सुमतिनाथ जी ने वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को दीक्षा ग्रहण की थी, और चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनका चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण हुआ था। इनका का प्रतीक चिह्न- चकवा, चैत्यवृक्ष-प्रियंगु, यक्ष- तुम्बुरव, यक्षिणी- वज्रांकुशा को माना जाता है।
पद्मप्रभुजी
छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभुजी का जन्म कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को पिता धरण राज और माता सुसीमा देवी के घर कौशाम्बी में हुआ था। श्री पद्ममप्रभुजी ने कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन दीक्षा ग्रहण की थी, और चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को इन्हें सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान श्री पद्मप्रभुजी का प्रतीक चिह्न- कमल, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष-मातंग, यक्षिणी- अप्रति चक्रेश्वरी को माना गया है।
सुपार्श्वनाथ जी
भगवान श्री सुपार्श्वनाथ को जैन धर्म में सातवां तीर्थंकर माना गया है। इनके पिता का नाम प्रतिस्थसेन और माता का नाम पृथ्वीदेवी था। इनका जन्म काशी में ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को हुआ था। भगवान श्री सुपार्श्वनाथ ने ज्येष्ठ महीने के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को दीक्षा ग्रहण की थी और फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्हें फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन ही सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। इनका प्रतीक चिह्न- स्वस्तिक, चैत्यवृक्ष- शिरीष, यक्ष- विजय, यक्षिणी- पुरुषदत्ता को बताया गया है।
चन्द्रप्रभु जी
जैन धर्म के आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का जन्म पौष मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को चन्द्रपुरी में हुआ था। इनके पिता का नाम राजा महासेन और माता का नाम सुलक्षणा था। उन्होंने पौष माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को दीक्षा ग्रहण की और फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। वहीं भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को उन्हें सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री चंद्रप्रभु का प्रतीक चिन्ह- अर्द्धचन्द्र, चैत्यवृक्ष- नागवृक्ष, यक्ष- अजित, यक्षिणी- मनोवेगा माना गया है।
पुष्पदंत जी
नौवें तीर्थंकर पुष्पदंत जी को माना गया है। इन्हें सुविधिनाथ के नाम से भी जाना जाता है। नवें तीर्थंकर पुष्पदंत के पिता का नाम राजा सुग्रीव राज और माता का नाम रमा रानी था, जो इक्ष्वाकु वंश से थे। पुष्पदंत जी का जन्म मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की पंचमी को काकांदी में हुआ था। उन्होंने मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की छठवीं तिथि को दीक्षा ग्रहण की थी। कठोर तपस्या के बाद कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया को सम्मेद शिखर में कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान श्री पुष्पदंत जी को भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। इनका प्रतीक चिह्न- मकर, चैत्यवृक्ष- अक्ष (बहेड़ा), यक्ष- ब्रह्मा, यक्षिणी- काली को माना गया है।
शीतलनाथ जी
जैन धर्म दसवें तीर्थंकर भगवान श्री शीतलनाथ जी के पिता का नाम दृढ़रथ और माता का नाम सुनंदा था। बद्धिलपुर में माघ माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को शीतलनाथ जी का जन्म हुआ था। उन्होंने माघ माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को दीक्षा ग्रहण की और पौष माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। श्री शीतलनाथ जी को बैशाख महीने के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। इनका प्रतीक चिह्न- कल्पतरु, यक्ष- ब्रह्मेश्वर, चैत्यवृक्ष- धूलि (मालिवृक्ष), यक्षिणी- ज्वालामालिनी को माना जाता है।
श्रेयांसनाथजी
जैन धर्म ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथजी की माता का नाम वेणुश्री और पिता का नाम विष्णुराज था। उनका जन्म सिंहपुरी नामक स्थान पर फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को हुआ था। फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन उन्होंने दीक्षा ली और माघ माह की अमावस्या के दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। श्री श्रेयांसनाथजी को श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। श्रेयांसनाथ जी का प्रतीक चिह्न- गैंडा, चैत्यवृक्ष- पलाश, यक्ष- कुमार, यक्षिणी- महाकाली को माना गया है।
वासुपूज्य जी
भगवान श्री वासुपूज्य जैन धर्म के बारहवें तीर्थंकर के रूप में जाने जाते हैं। इनका जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शतभिषा नक्षत्र में चम्पापुरी के इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। इनके पिता का नाम वसुपूज्य और माता का नाम जया देवी था। भगवान श्री वासुपूज्य ने फाल्गुन माह की अमावस्या को दीक्षा ग्रहण की थी, और माह महीने की द्वितीया को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चंपा में श्री वासुपूज्य जी को निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री वासुपूज्य का प्रतीक चिन्ह- भैंसा, चैत्यवृक्ष- तेंदू, यक्ष- षणमुख, यक्षिणी- गौरी है।
विमलनाथ जी
भगवान श्री विमालनाथ जैन धर्म के तेरहवें तीर्थंकर है। इनके पिता का नाम कृतर्वेम और माता का नाम श्याम देवी था। इनका जन्म माघ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को कपिलपुर में हुआ था। माघ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को ही भगवान श्री विमलनाथ जी ने दीक्षा ग्रहण की थी और पौष माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। वहीं आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को श्री सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान विमलनाथ जी का प्रतीक चिह्न- शूकर, चैत्यवृक्ष- पाटल, यक्ष- पाताल, यक्षिणी- गांधारी है।
अनंतनाथजी
चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथजी का जन्म वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को माता सर्वयशा और पिता सिंहसेन के घर अयोध्या में हुआ था। इन्होंने बैशाख माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा ग्रहण की थी। इसके बाद कठोर तप से बैशाख मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। इन्हें चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान श्री अनंतनाथ जी का प्रतीक चिह्न- सेही, चैत्यवृक्ष- पीपल, यक्ष- किन्नर, यक्षिणी- वैरोटी को माना गया है।
धर्मनाथजी
भगवान श्री धर्मनाथ को जैन धर्म में पन्द्रहवें तीर्थंकर का स्थान प्राप्त है। इनके पिता का नाम भानु और माता का नाम सुव्रत देवी था। रत्नापुर में माघ शुक्ल की तृतीया को इनका जन्म हुआ था और माघ शुक्ल की त्रयोदशी को श्री धर्मनाथ जी ने दीक्षा ग्रहण की थी। इसके बाद कठोर तपस्या के फलस्वरूप पौष माह की पूर्णिमा के दिन इन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। श्री धर्मनाथ स्वामी को ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन अनुयायियों के अनुसार भगवान धर्मनाथ का प्रतीक चिह्न- वज्र, चैत्यवृक्ष- दधिपर्ण, यक्ष- किंपुरुष, यक्षिणी- सोलसा है।
शांतिनाथजी
जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ का जन्म हस्तिनापुर में ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को इक्ष्वाकु कुल में हुआ। भगवान श्री शांतिनाथ के पिता हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन और माता आर्या (अचीरा) थी। उन्होंने ज्येष्ठ महीने में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा ग्रहण की थी और उन्हें पौष माह के शुक्ल पक्ष की नवमी को कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। भगवान श्री शांतिनाथ को ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान श्री शांति नाथ का प्रतीक चिह्न- हिरण, चैत्यवृक्ष-नंदी, यक्ष- गरूड़, यक्षिणी- अनंतमती को माना गया है।
कुंथुनाथजी
सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथजी का जन्म बैशाख माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हस्तिनापुर में हुआ था। इमकी माता का नाम श्रीकांता देवी और पिता का नाम राजा सूर्यसेन था। उन्होंने वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की और चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की। भगवान श्री कुंथुनाथ जी को बैशाख मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान श्री कुंथुनाथ जी का प्रतीक चिह्न- छाग (बकरा), यक्ष- गंधर्व, चैत्यवृक्ष- तिलक, यक्षिणी- मानसी है।
अरहनाथजी
जैन धर्म के अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथजी को ‘अर प्रभु’ के नाम से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम सुदर्शन और इनकी माता का नाम मित्रसेन देवी था। इनका जन्म हस्तिनापुर में मार्गशीर्ष महीने के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन हुआ था। श्री अरहनाथजी ने मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को दीक्षा ग्रहण की थी, और कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की थी। उन्होंने मार्गशीर्ष महीने की दशमी के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया। भगवान श्री अरहनाथजी का प्रतीक चिह्न- तगरकुसुम (मत्स्य), यक्ष- कुबेर, चैत्यवृक्ष- आम्र, यक्षिणी- महामानसी को माना गया है।
मल्लिनाथ जी
जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ जी है। इनके पिता का नाम कुंभराज और माता का नाम प्रभावती था। इनका जन्म मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी मिथिला में हुआ था। वही इसी तिथि मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और कैवल्य की प्राप्ति भी की। भगवान श्री मल्लिनाथ जी को फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन धर्म के अनुसार प्रतीक चिह्न-कलश, चैत्यवृक्ष- कंकेली (अशोक), यक्ष- वरुण, यक्षिणी- जया को माना गया है।
मुनिसुव्रतनाथजी
बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ की जन्म ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को राजगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम सुमित्र तथा माता का नाम प्रभावती था। उन्होंने फाल्गुन कृष्ण पक्ष की द्वादशी को दीक्षा ग्रहण की और फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की बारस को ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति भी की। भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ को ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की नवमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार श्री मुनिसुव्रतनाथ जी का प्रतीक चिह्न- कूर्म, चैत्यवृक्ष- चंपक, यक्ष- भृकुटि, यक्षिणी- विजया है।
नमिनाथ जी
जैन धर्म के इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ के पिता का नाम विजय और माता का नाम सुभद्रा था। भगवान श्री नमिनाथ मिथिला के राजा थे। उनका जन्म इक्ष्वाकु कुल में श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मिथिलापुरी में हुआ था। भगवान श्री नमिनाथ ने आषाढ़ मास के शुक्ल की अष्टमी को दीक्षा ग्रहण की थी और उन्हें मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। भगवान श्री नमिनाथ को बैशाख माह के कृष्ण पक्ष की दशमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री नमिनाथ जी का प्रतीक चिह्न- उत्पल, चैत्यवृक्ष- बकुल, यक्ष- गोमेध, यक्षिणी- अपराजिता है।
नेमिनाथ जी
भगवान श्री नेमिनाथ जी जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर हुए। उनके पिता का नाम राजा समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था। इनका जन्म सावन महीने के कृष्ण पक्ष की पंचमी को शौरपुरी (मथुरा) के यादव वंश में हुआ था। नेमिनाथ जी शौरपुरी के यादव वंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के बेटे थे। यदुवंशी राजा अंधकवृष्णी के सबसे छोटे बेटे वासुदेव के पुत्र भगवान कृष्ण थे। अगर रिश्ते की बात की जाए,तो भगवान श्रीकृष्ण और भगवान नेमिनाथ दोनों चचेरे भाई थे। भगवान नेमिनाथ ने श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को दीक्षा ग्रहण की थी और उन्हें आषाढ़ मास की अमावस्या को गिरनार पर्वत पर कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। भगवान श्री नेमिनाथ को आषाढ़ माह के शुक्ल की अष्टमी को निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन धर्मावलंबियों के अनुसार भगवान नेमिनाथ का प्रतीक चिह्न- शंख, चैत्यवृक्ष- मेषश्रृंग, यक्ष- पार्श्व, यक्षिणी- बहुरूपिणी है।
पार्श्वनाथ
भगवान श्री पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर थे। श्रीपार्श्वनाथ जी के पिता का नाम राजा अश्वसेन और माता का नाम वामा था। उनका जन्म पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी को वाराणसी (काशी) में हुआ था। भगवान श्री पार्श्वनाथ ने चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को दीक्षा ग्रहण की थी, और चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ही कैवल्य की प्राप्ति की थी। श्री पार्श्वनाथ जी के निर्वाण की बात की जाए, तो श्रावण शुक्ल की अष्टमी को सम्मेद शिखर उन्हें पर निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री पार्श्वनाथ जी का प्रतीक चिह्न- सर्प, यक्ष- मातंग, चैत्यवृक्ष- धव, यक्षिणी- कुष्माडी है।
महावीर स्वामी
जैन धर्म के आखिरी और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म नाम वर्द्घमान था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। भगवान श्री महावीर स्वामी का जन्म चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी को कुंडलपुर में हुआ था। उन्होंने मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी को दीक्षा ग्रहण की थी। श्री महावीर स्वामी को बैशाख माग के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। उन्हें 42 साल तक साधक जीवन बिताया। इसके बाद कार्तिक माह की अमावस्या को पावापुरी पर 72 वर्ष में निर्वाण प्राप्त हुआ। भगवान श्री महावीर स्वामी का प्रतीक चिह्न- सिंह, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- गुह्मक, यक्षिणी- पद्मा सिद्धायिनी है।
जैन धर्म विश्व के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। जैन धर्म का अर्थ होता है, ‘जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म’। आपको बता दें कि जो भगवान ‘जिन’ के अनुयायी होते हैं उन्हें ‘जैन’ कहा जाता हैं। ‘जिन’ शब्द ‘जि’ धातु से बना है। ‘जि’ का अर्थ होता है जीतना, अर्थात जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया है, जिन्होंने अपनी भावनाओं को काबू में कर लिया हो। जिन्होंने अपनी वाणी पर विजय हासिल कर ली हो, जिन्हें अपनी काया को जीतकर विशिष्ट ज्ञान पा लिया हो। जिन्होंने अपनी मन पर काबू पाकर संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, ऐसे महापुरुषों को जिनेश्वर या फिर ‘जिन’ कहा जाता है। जैन धर्म यानि कि ‘जिन’ का धर्म। अंहिसा को जैन धर्म का मूल सिद्धांत माना गया है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है, इस सॄष्टि पर किसी भी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है। हर कोई अपने अपने कर्म का फल भोगता है। ऐसा माना जाता है कि जैन धर्म में ईश्वर को सृष्टिकर्ता का स्थान नहीं दिया गया है।