रंग पंचमी: कब और कैसे हुई इसकी शुरुआत

रंग पंचमी: कब और कैसे हुई इसकी शुरुआत

रंग पंचमी को आम तौर होली के नाम से जाना जाता है। यह त्योहार भारत में फाल्गुन माह में मनाया जाता है। यह पर्व अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग समय अवधि तक मनाया जाता है। कहीं दो दिन तो कहीं पांच दिन तक आयोजित किया जाता है। सभी जगह अलग- अलग परम्पराएं निभाई जाती हैं। रंग पंचमी का पर्व फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है।

रंग पंचमी के पांच दिन पूर्व होलिका दहन किया जाता है। इसके ठीक अगले दिन रंगों का त्योहार धुलंडी मनाया जाता है। होली भारत के सभी प्रमुख जगहों पर पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। मीडिया और फिल्मों ने रंगों के त्योहार को लेकर लोगों का नजरिया बदल दिया है। लोगों के लिए रंगपंचमी की जगह होली को रंगों का प्रमुख पर्व बना दिया गया है। हालांकि अब भी देश के ग्रामीण इलाकों में रंग पंचमी को बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।


रंग पंचमी: कैसे हुई शुरुआत

हिंदू धर्म के मुताबिक इसकी कथा भक्त प्रहलाद और होलिका से जुड़ी है। एक समय दैत्यों का राजा था हिरण्यकश्यप। हिरण्यकश्यप ने ख्रुद को भगवान घोषित कर दिया, सभी को आदेश किया कि उसकी पूजा की जाए, उसे ही भगवान माना जाए। उसके भय से सभी ने वैसा ही करना शुरू कर दिया। लेकिन हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद ने उसे भगवान मानने से इनकार कर दिया। वह भगवान श्री विष्णु का अनन्य भक्त था। हिरण्यकश्यप ने कई बार प्रहलाद को मारने की कोशिश की, लेकिन प्रहलाद बस श्री हरि का नाम लेने मात्र से ही बचता गया। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया। होलिया एक राक्षसी थी, जिसे वरदान प्राप्त कि आग उसे जला नहीं सकती थी। एक दिन होलिका प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर आग में बैठ गई। प्रहलाद श्री विष्णु का नाम जपने लगा। देखते ही देखते होलिका आग में जल गई और प्रहलाद बच गया।

कुछ इसी तरह की एक कहानी भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से भी जुड़ी है। इस दिन कृष्ण ने राक्षसी पूतना का वध किया था। कृष्ण का मामा कंस एक दुष्ट राजा था। उसे पता था कि कृष्ण उनकी बहन देवकी का आठवां पुत्र है, वही उसका काल भी बनेगा। कंस ने कृष्ण को मारने के लिए राक्षसी पूतना को गोकुल भेजा। पूतना अपने स्तन पर जहर लगाकर गोकुल आई और वहां जो भी बच्चा मिला उसे स्तनपान कराने लगी। जब उसे कृष्ण मिले तो वह कन्हैया को स्तनपान कराने लगी। कृष्ण ने पूतना को मौत के घाट उतार दिया। जब सभी को पता चला कि पूतना के शरीर पर जहर लगा है, गोकुल के वासियों ने उसे आग के हवाले कर दिया।


रंग पंचमी 2025

रंग पंचमी होली के पांचवे दिन मनाई जाती है। होली 13 मार्च 2025 के दिन राहगी

रंग पंचमी बुधवार, 19 मार्च 2025 तक राहगी. फलस्वरूप रंग पंचमी मंगलवार, 18 मार्च 2025 को पड़ेगी

पंचमी तिथि प्रारंभ: मार्च 18, 2025 को 12:39 पी एम बजे
पंचमी तिथि समाप्त: मार्च 19, 2025 को 03:06 पी एम बजे

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रंग पंचमी की महत्ता

अग्नि:
हिंदू धर्म में आग की बहुत अधिक पवित्र व महत्वपूर्ण होती है। होली के पर्व पर आग जलाना अनिवार्य होता है। इस दिन पूतना व होलिका जो बुराई का प्रतीक थी, उसका दहन किया गया था। इसे बुराई के ऊपर अच्छाई की जीत के पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। होलिका का दहन हुआ और प्रहलाद सुरक्षित बच गया था। कुछ लोग इसे पूतना के दहन के रूप में भी मनाते हैं।

होलिका दहन की तैयारी करीब सप्ताह भर पहले से शुरू कर दी जाती है। लोग आस-पास घरों में मौजूद टूटे हुए फर्नीचर, खराब पड़ी लकड़ी को लाकर एकत्रित करते हैं। इसके बाद चंद्रोदय के समय लकड़ी एकत्रित कर उसमें आग लगा दी जाती है, भारत में इस मौके पर ढोल बजाए जाते हैं।

लोग आग के चारों तरफ नाचते गाते हैं और पूजा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह लोगों को स्वस्थ रखता है। आग में नारियल अर्पित करने से मन और आत्मा पवित्र रहती है। कुछ जगहों पर लोग आधी जली हुई लकड़ी को घर लाते हैं, ऐसा माना जाता है कि इससे बीमारियां घर से दूर रहती हैं।

रंग:
रात में जलाई गई आग से रजस व तमस तत्व टूट जाते हैं। वातावरण में मौजूद इन तत्वों का टूटना देवताओं का अभिनंदन करता है। ये देव रंगों के प्रतीक होते हैं। सुबह हवा में रंग फेंककर रंगों की जीत का जश्न मनाया जाता है। तमस तत्व लालच, द्वेष और भौतिकतावादी मानसिकता का प्रतीक होते हैं। रंगों के इसी जश्न का नाम रंग पंचमी होता है।


रंग पंचमी मनाने के अलग-अलग तरीके

मध्यप्रदेश में रंगपंचमी पर सभी लोग समारोह स्थल पर एकत्रित हो जाते हैं। यहां पर पानी के टंकी व टैंक और तेज प्रेशर वाले जेट रखे जाते हैं। इससे गलियों में लोगों पर रंग व पानी डाला जाता है, रंग से उन्हें सराबोर कर दिया जाता है। इंदौर में समारोह में तोपों का इस्तेमाल किया जाता है। लोगों को रंगा जाता है। यहां पर समारोह में भांग का अधिक महत्व है।

महाराष्ट्र में इसे फाल्गुन पूर्णिमा और रंग पंचमी कहा जाता है। वहीं, गोवा में मछुआरे इसे शिमगो या शिमगा कहते हैं। यहां परम्पराओं के साथ यह त्योहार बिना किसी धर्म, जाती या समुदाय के भेदभाव के मनाया जाता है।

वहीं श्रद्धालु इसे भगवान कृष्ण और उनकी प्रेयसी राधा के प्रेम के प्रतीक के तौर पर भी इस त्योहार को मनाते हैं। भक्त मानते हैं इससे प्रेम परिवार में प्रेम बढ़ता है।

पालकी परम्परा भी इस रंगपंचमी के पर्व का एक अभिन्न हिस्सा है। यह देश के कई कोनों में मनाया जाता है। खास तौर पर मछुआरा समुदाय में इसकी अधिक मान्यता है।

गुजरात और महाराष्ट्र में यह दिन मटकी फोड़ होली के तौर पर भी मनाया जाता है। बिहार, मथुरा, वृंदावन और गोकुल के मंदिरों में इस उत्सव का अनोखा रंग नजर आता है।

तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश में होली के त्योहार को कामदेव के बलिदान के रूप में भी मनाया जाता है। कामदेव काम के भगवान हैं, बसंत के समय उनका प्रभाव लोगों पर अत्यधिक रहता है। इस दिन भगवान शिव में काम देव को भस्म कर दिया था।

मणिपुर, असम, सिक्किम, मेघालय में इसे योशंग या पिचकारी या देओल के नाम से जानते हैं। यह दिन छह दिनों तक चलता है। एक दिन पारम्परिक नृत्य उत्सव के नाम भी होता है।

पश्चिमी बंगाल और ओडिशा में होली को बसंत उत्सव या डोल पूर्णिमा के नाम से जानते हैं। डोल पूर्णिमा को झूला उत्सव मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के लिए झूला तैयार किया जाता है। उसे सजाया जाता है। भगवान कृष्ण की मूर्ति या तस्वीर को झूले पर विराजित किया जाता है। महिलाएं भी झूला झूलकर नाचते गाते हुए यह उत्सव मनाती हैं।

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