भगवान शिव (Lord Shiva) से जुड़ी कुछ प्रमुख कहानियां और उनका महत्व
आज हम बात करने वाले है भगवान शिव के बारे में। जब भगवान शिव के बारे में बात करने की बारी आती है, तो उनके बारे न कुछ कहने का सामर्थ्य है और न ही हमारे पास शब्द है। यही आदि और यही अंत है। भगवान शिव का परिचय किस रूप में दें, यह हमारी समझ से बिलकुल बाहर है। लोग उन्हें अपने अनुसार पूजते है, उनके रूप की व्याख्या करते हैं। इनके नाम से ही दुनिया शुरू और खत्म होती है। यह एक संहारक भी है, तो जनक भी है। आज हम यहां भगवान शिव के जहर पीने की कहानी से लेकर उनकी रहस्यमय दास्तां को संक्षिप्त रूप में बताने जा रहे हैं। तो बिना देर किए, चलिए पढ़ना शुरू करते हैं।
भगवान शिव द्वारा विष पीने की विष कथा
जब भगवान शिव के विष पीने की बात आती है, तो समुद्र मंथन का जिक्र न हो ऐसा तो संभव नहीं है। हिंदू दर्शन में समुद्र मंथन को बहुत ही विस्तृत तरीके से वर्णित किया गया है। जब देव और असुरों के बीच संग्राम हुआ उस समय समुद्र मंथन किया गया था। उससे विष और अमृत दोनों निकले थे। आपको बता दे, समुद्र मंथन को किसी जगह सागर मंथन, तो किसी जगह क्षीरसागर मंथन के नाम से भी जाना जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि दूध के सागर का मंथन करने पर विष और अमृत निकले थे। तो कुछ लोगों का मानना है, यह पानी के सागर का मंथन करने पर निकले थे। सब में एक चीज कॉमन है वो है मंथन।
पौराणिक कथा
1910 के दशक में बाजार में एक पुस्तक आई थी उसमें समुद्रमंथन के चित्र को साकार किया गया था। इसमें देवता, दाईं ओर यानि वासुकी नाग की पूछ को पकड़े हुए थे वही असुर या राक्षस, बाईं ओर सांप के मुहं को पकड़े हुए थे।
एक समय की बात है, स्वर्ग के देवता इंद्र अपने ऐरावत हाथी पर सवार होकर , ऋषि दुर्वासा के पास गए। ऋषि दुर्वासा ने इंद्र को एक अमूल्य माला प्रदान की, जो की भाग्य और श्री प्रदान करने वाली थी। इंद्र ने उस माला को लेकर अपने हाथी की सूंड पर डाल दिया। उस माला की महक से कुछ मधुमक्खियां आकर्षित होकर, हाथी को परेशान करने लगी। ऐरावत हाथी ने गुस्से में आकर वो माला जमीन पर गिरा दी। माला को जमीन पर गिरा देखते ही , ऋषि दुर्वासा को बहुत तेज क्रोध आया। उन्होंने इंद्र समेत सभी देवताओं को श्री (भाग्य ) और ऊर्जा से रहित होने का श्राप दे दिया। देवताओं का सब धन ऐश्वर्य समुद्र में जाकर समा गया।
देवताओं के शक्तिहीन होने की खबर जैसे ही असुरों को लगी। उन्होंने देवताओं पर आक्रमण कर उनका स्वर्ग छीन लिया। असुरों के राजा बलि ने पुरे ब्रम्हांड पर अपना अधिकार जमा लिया। देवता जब अपना सब कुछ हार बैठे, तो वे भगवान विष्णु के पास अपनी सहायता के लिए गए। श्री हरी ने देवताओं को असुरों से कूटनीतिक रूप से निपटने की सलाह दी। इस घटना के बाद एक योजना के तहत देवों और असुरों ने अमरता प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन से अमृत को निकालने के लिए एक गठबंधन बनाया। वही दूसरी ओर, भगवान विष्णु ने देवताओं को मदद की पूरी सांत्वना दी। उन्होंने कहा की वे स्वयं अमृत प्राप्त करने में मदद करेंगे।
अब दूध के महासागर को मथने के लिए एक पर्वत और रस्सी की आवश्यकता थी। इसके लिए मंदार पर्वत को वासुकी नाग से बांधा गया। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार को महिंद्रा पर्वत के नीचे रखा गया। जिससे कि समुद्र मंथन अच्छे से हो सके। उसके बाद मंथन शुरू हुआ। वासुकी नाग वही है जिन्हें भगवान शिव गले में धारण किये हुए रहते है।
जब समुद्र मंथन की प्रक्रिया शुरू हुई, तो सबसे पहले यह समस्या आई की वासुकी नाग के मुंह की तरफ कौन होगा, और पूछ की तरफ कौन होगा। भगवान विष्णु ने चतुराई से इस समस्या का समाधान निकालते हुए देवताओं को पूछ की तरफ और असुरों को मुंह की तरफ पकड़ने का आदेश दिया। कुछ लोगों का मानना है की समुद्र मंथन के समय समुद्र में से कई चीजे निकली। जिनमें से एक हलाहल नामक विष भी था। कुछ लोग ऐसा मानते है, की वासुकी नाग से जब मंथन की प्रक्रिया शुरू हुई तो घर्षण की वजह से जब वो फुंकारते थे। तो विष निकलता था। सत्य जो भी हो, पर यह विष इतने जहरीले थे की कुछ ही समय में पूरी सृष्टि को समाप्त कर सकते थे।
इतने भयानक विष को सृष्टि में फैलने की वजह से देवता घबरा गए। उन्होंने भगवान शिव से सहायता मांगी। भोलेनाथ ने उस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया, भगवान शिव के गले में जहर जाते ही उनको बहुत कष्ट होने लगा। मां पार्वती से अपने पति का यह कष्ट देखा नहीं गया। वो भागकर उनके कंठ पर हाथ रखकर उस जहर को गले में ही रोक देती है। जिसकी वजह से उनका कंठ नीला हो जाता है। कंठ नीला होने की वजह से भगवान शिव को नीलकंठ के नाम से भी जाना जाने लगा।
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सागर मंथन से क्या क्या निकला ?
मंथन के समय जो जडीबुटी बाहर निकली, उसे समुद्र में फेंक दिया गया। उसके बाद जो चौदह रत्न (रत्न या खजाने) निकले, वो असुरों और देवों के बीच विभाजित हो गए। हालांकि रत्नों को आमतौर पर 14 के रूप में गिना जाता है, शास्त्रों कहीं कहीं 9 तो कहीं 14 रत्न के बारे में उल्लेख किया गया है। भगवान शिव ने जहर को, विष्णु को कामधेनु गाय और सुरभि, उसके बाद असुरों और देवताओं को उनकी योग्यता के अनुसार चीजें प्रदान की गई। कई शास्त्रों में वर्णित सूची के आधार जो मुख्य वस्तुएं समुद्र मंथन से निकली वो इस प्रकार है।
देवी लक्ष्मी: भाग्य और धन देवी, जिन्होंने विष्णु को अपनी शाश्वत पत्नी के रूप में अपनाया।
अप्सराएं: कई पवित्र अप्सराएं जिन्होंने गंधर्वों को अपने साथी के रूप में चुना, जैसे रंभा, मेनका, पुंजिकस्थला और अन्य।
वारुणी: वारुणी को असुरों को दिया गया।
इसी तरह मंथन से तीन अलोकिक जानवर प्रकट हुए।
कामधेनु और सुरभि : इस इच्छा पूर्ति गाय को ब्रह्मा ने लिया, और ऋषियों को दे दिया। ताकि उसके दूध , घी का प्रयोग यज्ञ, हवन और अन्य कामों के लिए प्रयोग किया जा सके।
ऐरावत : इंद्र ने इस ऐरावत हाथी को अपने लिए चुना।
उच्चैश्रवा : बाली को सात सिर वाला दिव्य घोड़ा उच्चैश्रवा दिया गया।
समुद्र मंथन से तीन कीमती मणि भी निकली :
कौस्तुभ मणि : दुनिया का सबसे कीमती रत्न (दिव्य गहना), जिसे विष्णु पहनते हैं।
पारिजात: पवित्र फूल वाला पेड़, जिसके फूल कभी मुरझाते नहीं हैं, जिसे देवता इंद्रलोक में ले गये थे।
भगवान विष्णु को धनुष सारंग दिया गया था।
ऊपर दी गई चीजों के अलावा और भी चीजें समुद्र मंथन से निकली थी। जो इस प्रकार है।
चंद्र: शिव ने अपने सिर पर चंद्रमा को धारण किया।
धन्वंतरि: अमृत कलश के साथ निकले। जिन्हें “देवताओं का वैद्य” भी कहा जाता है। (कभी-कभी धन्वन्तरि और अमृत कलश को अलग-अलग रत्न भी माना जाता हैं।)
हलाहल विष: शिव द्वारा पिया गया विष।
ऊपर जो सूची दी गई है,वो कुछ पुराण और महाभारत से थोड़ी भिन्न है। कुछ लोगों का मानना है की सूची को पूरा करने के लिए निम्नलिखित रत्नों को जोड़ा जाना चाहिए।
शंख विष्णु का शंख है।
अलक्ष्मी (ज्येष्ठा): दुर्भाग्य की देवी
वरुण जो की छाता लिए हुए थे।
अदिति झुमके, जो इंद्र के पुत्र ने दिए थे।
कल्पवृक्ष: एक पवित्र वृक्ष जो इच्छाओं को पूरा करता है।
निद्रा (नींद): नींद की देवी।
अंतिम रत्न अमृत
समुद्र मंथन में सबसे आखरी में अमृत कलश पकड़े हुए धन्वन्तरी प्रकट हुए। इस कलश को प्राप्त करने के लिए देवता और असुरों में भयंकर युद्ध हुआ। इसी बीच गरुण देव ने उस कलश को लिया और लेकर उड़ गये।
देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की, हे प्रभु अगर असुरों ने अमृत का पान कर लिया। तो अनर्थ हो जायेगा। तब भगवान विष्णु ने मोहनी रूप धारण किया। मोहनी का रूप देखकर असुर अचम्भित हो गए। अपने रूप का फायदा उठाकर मोहनी ने असुरों को साधारण जल और देवताओं को अमृत पिला दिया। एक असुर ने देवताओं का रूप धारण करके उस अमृत को पी लिया। सूर्य और चन्द्र देव ने उसके इस कृत को पहचान लिया और भगवान विष्णु से उसकी शिकायत की। तब उन्होंने सुदर्शन चक्र से उस असुर का गला काट दिया। जिसकी वजह से अमृत उसके गले में ही रुक गया। इसी असुर के सिर को राहू और धड़ को केतु कहा गया। जब असुरो को विष्णु भगवान की इस चालाकी का पता चला। तब देवतायों और असुरो के बीच फिर से युद्द हुआ। इस बार देवता जीत गए।
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कुंभ मेला का इतिहास
कुम्भ मेला को लेकर माना जाता है, जब देवता असुरों से अमृत कलश लेकर भाग रहे थे। उस समय अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी पर चार जगह गिर गई थी। इन जगहों के नाम हरिद्वार, प्रयागराज, त्र्यंबकेश्वर (नासिक), और उज्जैन है। इन कथाओं के अनुसार इन चारों स्थानों का बहुत महत्व है। इस कारण से इन चारों स्थानों पर हर बारह साल में एक कुंभ मेला आयोजित किया जाता है। लोगों का मानना है, कि कुंभ मेले के दौरान वहां स्नान करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जबकि पुराणों सहित कई प्राचीन ग्रंथों में समुद्र मंथन कथा का उल्लेख किया गया है, लेकिन उनमें से कोई भी चार स्थानों पर अमृत छलकने का उल्लेख नहीं करता है।
स्कॉलर आर बी भट्टाचार्य, डीपी दुबे और कामा मैकलीन सहित कई विद्वानों का मानना है, कि मेले के बारे में शास्त्र संबंधी अधिकार दिखाने के लिए, इसके साथ समुद्र मंथन की किंवदंती को लागू किया गया है। कुंभ मेले के पवित्र जल में स्नान करने से ही लोग मोक्ष पा सकते हैं और अपने बुरे कर्मों को भी दूर कर सकते हैं।
शिव के लक्षण
भगवान शिव की छवि की बात करें तो जिसने भोलेनाथ को जिस रूप में देखा उसमें वर्णित कर दिया। इतिहासकारों और भक्तों ने समान रूप बताया। बाघ की खाल को लपेटे हुए, अर्धचंद्र को सिर पर धारण किये हुए है, गले में सर्प, तीसरी आंख, उलझे हुए बाल, जटा से निकली हुई गंगा, एक हाथ में त्रिशूल उसके ऊपर डमरू। शिव को पूरी तरह से समझने के लिए उनको पहचानना आवश्यक है। वे नाम, रूप और समय के तीनों से ऊपर है। शिव सबसे ऊपर हैं।
क्या है शिव का महत्व?
शिव का अर्थ शा + ई + ई + ई + ई + ई व
शा का अर्थ है श्रीराम, जिसका अर्थ है शरीर, और ई का अर्थ है ईश्वरी, जीवन देने वाली ऊर्जा।
वा का अर्थ वायु है, जिसका अर्थ गति है।
शिव जीवित, गतिशील शरीर को दर्शाते हैं।
जब ‘ई’ हटा दिया जाता है तो शिव श+वा = शव हो जाते हैं।
शव एक ऐसा शब्द है जो एक बेजान शरीर को दर्शाता है। शिव में जीवित रहने की क्षमता है, जबकि शव इससे रहित है।
शिव जीवन है, शिव जीवन की क्षमता है, शिव सर्वव्यापी है – सार्वभौमिक आत्मा या चेतना है, जो हमें एक गहरी समझ में ले जाता है। इस शिव तत्व को पहचानने से आनंद प्राप्त होता है।
भगवान शिव के साथ संवाद करने के ग्यारह अलग-अलग तरीके
भगवान शिव की पूजा सभी धर्मों के लोग हजारों सालों से करते आ रहे हैं। शिव के अनेक गुणों की व्याख्या करना या उन्हें शब्दों में बयां करना असंभव है। हमारे पवित्र वेद और पुराण में शिव को आशुतोष के नाम से भी जाना जाता है। जिसका अर्थ सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देवता। ऐसा माना जाता है की भगवान शिव को प्रसन्न करना सबसे सरल है। देवता तो देवता यहां तक कि राक्षस भी शिव को पूजा के द्वारा प्रसन्न करते हैं।
भक्त ने अपने भगवान शिव के साथ संवाद करने के ग्यारह विशिष्ट तरीके बताये है जो नीचे वर्णित हैं।
- सबसे पहले अपने मन से हर प्रकार की चिंताओं से मुक्त करों, आग की तरह पवित्र बनो। मन को इतना मजबूत बनाना है, की कोई भी कार्य मन को प्रभावित न करें।
- व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण रखने में सक्षम होना चाहिए। यह समूचा ब्रह्मांड आशावादी सोच पर टिका हुआ है।
- ॐ नमः शिवाय मंत्र का जाप करें – इस मंत्र को रोज 108 बार बोले। इसका नियमित अभ्यास शुरू करें। इस जाप की संख्या 216,432 तक होनी चाहिए।
- शिव मंदिर में जाएं – हर दिन शिव मंदिर जाएं, वहां कुछ समय बिताएं और वहां की सकारात्मक ऊर्जा अपने अंदर महसूस करें।
- सोमवार का व्रत करें – उपवास हमारे शरीर की सफाई में सहायक होता है। इसके साथ ही इस दिन दैनिक जीवन में आने वाली बाधाओं से निपटने के लिए “रुद्राष्टकम” मंत्र का जाप करें।
- “शिव कथा” सुनें – सोमवार के उपवास के दौरान “शिव कथा” या कहानियों को सुनने से आपके अंदर, विश्वास, आंतरिक शक्ति और उपलब्धि हासिल करने में मदद मिलेगी।
- महादेव को रुद्राक्ष बहुत प्रिय है। उसे धारण करें। रुद्राक्ष की माला पहनने से आप शिव के करीब आ जाएंगे और आपको एक सच्चे भक्त बनने में मदद मिलेगी।
- भगवान शिव को भांग, बिल्वपत्र और फूल चढ़ाएं। ताकि शिव आपको आशीर्वाद के रूप में धन लाभ दें।
- कैलाश मानसरोवर यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न करने की सबसे बड़ी यात्रा मानी जाती है। इस धाम को भगवान शिव का सबसे पवित्र स्थान माना जाता है।
- महादेव के बारे में अधिक जानने के लिए शिव पुराण या शिव गीता का पाठ करें। मोक्ष चाहने के लिए उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारे।
- शिव सहस्रनाम का जाप करें – एक कथा के अनुसार एक बार, भगवान विष्णु शिव को प्रसन्न करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सहस्रनाम का जाप करते हुए, अपनी आंख महादेव को दान कर दीं। उनकी तपस्या से शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें “सुदर्शन चक्र” दिया।
ऐसा कहा जाता है कि जो कोई भी मन की पवित्रता और समर्पण के साथ शिव की पूजा करता है, उसे सपने में भी कभी कष्ट नहीं होता है। शिव आपकी सभी समस्याओं से रक्षा करते हैं।
भगवान शिव और आस्था
कैलाश पर्वत पर विराजमान भोलेनाथ के दर्शन पाने के लिए मुनियों, देवताओं और सिद्ध पुरुषों को भी कठिन तपस्या की जरूरत होती है। तो भला आज के मनुष्य उन्हें कैसे देख सकते हैं। महाभारत के अनुसार, केवल सबसे श्रेष्ठ प्राणी, नर-नारायण को वो वहाँ बैठे दिखाई देंगे। महाभारत के उद्योग पर्व के इस अध्याय में गरुड़ कैलाश को इस प्रकार बताते हैं :
हे ब्राह्मणों, चूंकि यह पर्वत का स्थान हमें हर पाप से बचाता है, और यहां मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिए इसे उत्तर (उत्तराना) शक्ति के लिए उत्तर कहा जाता है। यह क्षेत्र उत्तर के सभी खजानों का निवास है, यह पूर्व और पश्चिम की एक पंक्ति में फैला हुआ है। कोई भी व्यक्ति जो अदम्य है, बेलगाम इच्छाओं से भरा है, या अधर्मी इस क्षेत्र में नहीं रह सकता है । इस जगह पर सिर्फ वही लोग रह सकते हैं जो सभी से श्रेष्ठ है। यहां वदारी नामक एक अश्रयस्थान है, जहां कृष्ण रहते थे, जो स्वयं नारायण हैं। पुरुषों में श्रेष्ठ विष्णु हैं, और चीर काल (अनन्त काल) तक के रचयिता ब्रह्मा जी हैं। महेश्वर, जिनकी अंतराग्नि युग को भस्म करने में सक्षम है, वो महेश्वर हिमवान के स्थान पर आज भी स्थित है। जो प्रकृति के सानिध्य में हैं और पुरुष का भेष धारण किए हुए है।
भगवान शिव को मुनियों के विभिन्न समूहों द्वारा नहीं देखा जा सकता है। सिर्फ देवताओं, गंधर्व, यक्ष और सिद्ध, नर और नारायण को छोड़कर उन्हें कोई जल्दी से नहीं देख सकता। माया के साथ निवास करने की वजह से वे केवल शाश्वत विष्णु द्वारा ही देखे जा सकते हैं। जिनके पास एक हजार सिर और हजार पैर हैं। चंद्रमा को इस क्षेत्र में पुनर्जन्म के आदेश के सर्वोच्च शासक के रूप में नामित किया गया है। महादेव ने सबसे पहले उन्होंने अपने सिर पर धारण किया है। यहीं पर देवी उमा ने महेश्वर को प्राप्त करने के लिए अपनी तपस्या की थी। शिव, हिमावत और उमा सभी इस क्षेत्र में प्रभावशाली ढंग से विराजमान है।
इन सब बातों का यह नतीजा निकल कर आता है की, वास्तव में कैलाश जाकर महादेव के दर्शन करना असंभव है। हालांकि, अगर कोई शिव की भक्ति करता है, तो भगवान शिव की ऊर्जा को महसूस कर सकता है। यहीं ऊर्जा ही शिव का स्वरुप है।